भाग्यशाली
लोगों को ही होता है "कन्या संतान योग"
कन्या
संतान उन्हीं लोगों के होती है जो परम भाग्यवादी योग वाले होते हैं, साथ ही अगले जन्म में कन्यादान के महापुण्य के
कारण पुण्यलोक को प्राप्त कर आनंदित रहते हैं। भारतीय संस्कृति में कहा गया है
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, जहां नारी की पूजा
होती है वहीं देवता निवास करते हैं। आज स्थिति यह आ पहुंची है कि कन्या के गर्भ
में आते ही उसकी हत्या कर दी जाती है। धर्मशास्त्र में भ्रूण हत्या और विशेषकर
कन्याभ्रूण हत्या महापाप माना जाता है और महापाप करने वाला कभी जीवन में खुश नहीं
रह सकता। चाहे उसके पास भौतिक संसाधन कितने ही हो जाएं।
ज्योतिषशास्त्र
में भी स्त्री एवं पुरुष भाग में बारह राशियां एवं सारे ग्रह विभाजित हैं। सूर्य, मंगल, गुरु पुरुष ग्रह हैं तो
चंद्रमा, शुक्र, शनि स्त्रीग्रह हैं। बुध
नपुंसक है तथा जिसके साथ बैठ जाता है वैसा ही फल प्रदान करने लग जाता है। राशियां
भी छह स्त्री और छह पुरुष होती हैं। प्रकृति एवं ब्रह्माण्ड में सभी जगह दो
शक्तियों का संतुलन बना रहता है। यही संतुलन ही आनंद देता है, असंतुलन तो अशांति प्रदान करता है।
ज्योतिष
शास्त्र में भी स्त्रीग्रह बलवान तभी माने जाते हैं जब उनका संबंध पुरुष ग्रहों से
रहता है। चाहे स्थान संबंध हो, दृष्टि संबंध या
अन्योन्याश्रय संबंध। ठीक वैसे ही समाज में भी परिवार एवं व्यक्ति की शोभा तब तक
ही है, जब तक दाम्पत्य में खुशहाली हो और गृहलक्ष्मी परम
प्रसन्न हो। ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों
के संबंध भी हमारे पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तों की तरह नाजुक होते हैं। जैसे
ग्रहयोग होते हैं हमारी चित्तवृत्ति भी वैसी ही बन जाती है। यही कारण है कि आजकल
रिश्तों की मधुरता एवं मर्यादा में धर्मशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, व्यावहारिक शास्त्र आदि की महत्ता को हमने समाप्त
कर दिया है।
शास्त्रों
में तो कहा गया है - दस कुएं बनाने पर जो पुण्य मिलता है वह एक बावड़ी बनाने पर
मिल जाता है। दस बावड़ी बनाने पर जो पुण्य मिलता है वह एक तालाब बनाने पर मिल जाता
है और दस तालाब बनाने पर जो पुण्य मिलता है वह एक कन्यादान से मिल जाता है।
पुण्य
कोई सुगंधित या सुंदर दिखने वाला पदार्थ नहीं होता है। यह आनंद अनुभूति की
पराकाष्ठा होती है। उसकी निरंतरता तब ही संभव हो पाती जब दानपुण्य चलते रहते हैं।
कन्यादान भी वही भाग्यशाली स्त्री-पुरुष कर पाते हैं जिनके संतान स्थान पर तृतीय
स्थान, एकादश या व्यय भाव के स्वामी की दृष्टि पड़ रही हो
अर्थात दान भाव के अधिपति एवं संतान भाव में संबंध बन रहा हो। तृतीय एवं एकादश भाव
दान के कारक स्थान होते हैं और उनका संबंध पंचमेश, नवमेश से हो जाए तो
कन्यादान के महापुण्य की प्रबल संभावना बन जाती है। इसीलिए कन्या संतान ही
जन्म-जन्मांतर से मुक्ति दिलाने वाली होती है। कहा गया है,
श्रुत्वा
कन्या प्रदातारं पितर: स पितामहा:। विमुक्त्वा सर्वपापेभ्यो ब्रह्मलोकं ब्रजन्ति
ते॥
अत:
पितामहों सहित पितर लोग कन्यादान देने वाले से अपने वंश को सुनकर सब पापों से
मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जाते हैं। पुत्र की कामना वाले दहेज लोभ के साथ कन्या
लाते हैं। ऐसे लोग दोहरा दान ग्रहण करने से पातकी श्रेणी में आ जाते हैं और
कन्यादान से ही उस ऋण से मुक्ति संभव हो पाती है। इसीलिए पुत्र प्राप्ति से अधिक
महत्वपूर्ण योग कन्या प्राप्ति का होता है। पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर
पुरुष ग्रहों की स्थिति कन्या संतान प्रदान करती है और स्त्री ग्रहों की युति
पुरुष संतान प्रदान करती है। कन्या प्राप्ति के बिना मोक्ष संभव नहीं है और इसीलिए
शनि का आगामी चक्र जनमानस में यह प्रबल धारणा बना देगा कि पुत्र संतान की अपेक्षा
कन्या संतान पुण्य प्रदायिनी होती है।
जिन
लोगों की पुरुष राशियां बलवान होती है उन्हें भी कन्या संतान की प्राप्ति होती है।
यह विपरीत योग हुआ करता है। ऐसी स्थिति में मानसिक शांति एवं समृद्धि कन्या योग
में ही होती है। कन्या ही देवी है, लक्ष्मी है, सरस्वती है और उसके विनाश का प्रयास उसे महाकाली
के रूप में पैदा करने का निमंत्रण देता है।
कृपया
शेयर द्वारा अपने अन्य मित्रों
को
भी अवगत कराएँ ... _/|\_
-
जय
हिंदुत्व ...
No comments:
Post a Comment