मन को अंतर्मुखी कर दे वही मंत्र
होता है। जब मन अंतर्मुखी हो जाएगा, तो भीतर डुबकी लगेगी ही। जब मन ही नहीं बचेगा, तो फिर मंत्र को कौन दोहराएगा। चाहे किसी धर्म के
मंत्र हों, सभी मन से ही किए जाते हैं। मंत्र का लाभ बस
इतना ही है कि अगर प्रेम और श्रद्धा से हो, तो मन की
एकाग्रता थोड़ी-सी बनी रहती है। मंत्र बोलते हुए मन में भाव आने चाहिए।
अब कई लोग ऐसे हैं जो न तो मन की एकाग्रता लेना
चाहते हैं, न उन्हें इसकी कोई खबर होती है। उनको केवल
इतना ही बताया जाता है कि माला पकड़ो और ‘राम-राम’
रटते जाओ। तो उनकी राम-नाम की चकरी चलती रहती है। यह तो अपने आप
को धोखा देना हुआ।
तब तो शायद भगवान के साथ भी हिसाब-किताब कर रहे हो
कि ‘देखो रामजी! हमने आपके दस करोड़ नाम लिए।’ अब रामजी क्या करें? क्या वो भी हिसाब रखते
हैं। क्या वो आपको चिट्ठी भेजें कि कि कितने मंत्र उन्होंने सुन लिए। कबीर ने किसी
को रटते हुए देखा था, तो उन्होंने कहा ‘क्या तू तोता है जो राम-राम रट रहा है?’ राम
मंत्र रटने की चीज नहीं, बल्कि इसमें डूबने की चीज है। जो
जितना डूबा उतने मोती पा लिए।
मंत्र महान तभी है, जब
मंत्र तुमको ठहरा दे। ठहराव में पहुंचना हो तो संकीर्तन गाओ। पर गाते-गाते तुम उसी
स्थिति में आ जाओ जहाँ जाकर मन ठहर जाए। सदा बोलने वाली मन-बुद्धि आनन्द के सागर
में डुबकी लगा जाए। फिर अब कौन कहेगा, कौन
बोलेगा?
यदि तुम किसी देवी उपासक के पल्ले पड़ जाओ, तो ‘जय माता दी, जय
माता दी’ दोहराते रह जाओगे। रामकृष्ण परमहंस भी मां-मां
पुकारते थे, लेकिन उनके ‘माँ’
शब्द बोलने में एक तड़प, एक आतुरता,
एक प्यार, एक कसक होती थी।
वे मां मां पुकारते हुए भाव में इतने गहरे उतर जाते
थे कि आँखों से आँसू बहने लगते, रोम-रोम खड़े हो जाते,
उनका पूरा शरीर कांपने लगता, प्रेम की
लहरों में तरंगित हो उठते।
वह सच्चे मन से मां को पुकारते थे। उसमें आडंबर नहीं
था। लेकिन भक्ति जागरण में ये गवैये तो ऐसे बुलवाते हैं, मानो
सीने पर बंदूक धरी हो कि ‘जय माता दी’ बोलनी ही पडे़गी। मैं इसे शब्दों का दुरुपयोग तो नहीं कह रही, पर इसे सदुपयोग भी नहीं कहा जा सकता। मंत्र वह है जो
आपके हृदय और चित्त को तरंगित करे। मंत्र का लक्ष्य यही है कि इसे दोहराते-दोहराते
मन अंतर्मुखी हो जाए इसी को कहते हैं मंत्र।
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