क्या भारत
1962 में चीन से मिली हार को जीत में बदल सकता था?
वायुसेना
प्रमुख एयर चीफ मार्शल एनएके ब्राउन की मानें तो ऐसा हो सकता था। ब्राउन ने कहा है
कि अगर भारत ने वायुसेना का आक्रामक ढंग से इस्तेमाल किया होता तो शायद देश को
शर्मसार करने वाली हार का मुंह नहीं देखना पड़ता।
वायुसेना प्रमुख के मुताबिक, 'अगर वायुसेना का हमले में इस्तेमाल होता तो
शायद 1962 का नतीजा कुछ और होता। एयर फोर्स जंग की तस्वीर
बदल सकती थी।' वायुसेना को तब सिर्फ थलसेना की मदद के काम में
लगाया गया था। ब्राउन के ताज़ा बयान ने फिर से 1962 की जंग पर बहस को हवा दी है।
1962 की जंग
में मौत को चकमा देने वाले दुर्गा बहादुर बसनेत चीन से हुई लड़ाई को याद करते हुए
बताते हैं कि चीनी सैनिकों की ओर से भारी तोपों के जरिए गोलाबारी की जा रही थी।
ऐसे में उनकी यूनिट के लिए अपनी तोपें निकाल पाना मुश्किल था. लेकिन यूनिट ने अपनी
हल्की तोपों से हमला जारी रखा।
बसनेत उन लम्हों को याद करते हुए बताते
हैं, 'हमारे पास कोई नक्शा नहीं था, हमने
सिक्किम के रास्ते आगे बढऩे की कोशिश की, लेकिन तब
वह अलग देश हुआ करता था, इसलिए
उसने हमें इजाजत नहीं दी। हालात उस समय और भी बदतर हो गए, जब
चीनियों ने हम पर विस्फोटकों की बारिश शुरू कर दी। हमें तो उस वक्त जवाबी हमले के
लिए सही तरीके से आदेश भी नहीं दिए गए थे।'
बसनेत के मुताबिक, 'हम कहीं से भी कमजोर नहीं थे, अगर हमें
वापसी का आदेश नहीं दिया गया होता तो हमने जंग जारी रखी होती।'
बसनेत याद करते हैं, 'हम द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने के हथियारों से
जंग लड़ रहे थे, जबकि
चीनियों के पास स्वचालित राइफलें थीं। हमारे लिए तो सारे रास्ते अनजाने थे, जिनमें
भूस्खलन, सड़क जाम और घने जंगलों की भरमार थी।'
बसनेत ने आठ दिसंबर 1952 को भारतीय थल सेना में भर्ती होकर एंटी-एयर
क्राफ्ट बंदूकों का संचालन करने वाली 29 आर्टी के
तोपखाने में काम करना शुरू किया था। 1962 में चीन
के साथ हुई जंग में ही पहली बार उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका मिला था। वह
उन्हीं की यूनिट थी, जिसने
तवांग की लड़ाई में 1/9 गोरखा
राइफल्स के लिए कवर फायरिंग की थी।
ब्रिटिश पत्रकार नेविल मैक्सवेल भारत और
चीन के रिश्तों की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। भारत-चीन विवाद पर पुस्तक लिख
चुके नेविल एक चौंकाने वाला दावा करते हैं। नेविल मानते हैं कि 1962 का भारत-चीन युद्घ अवश्यंभावी था। यह चीन पर
थोपा गया था। भारतीय सेना को थागला रिज के चीनी ठिकाने पर आक्रमण करने का आदेश
दिया गया था। चीनी इलाके में मैकमोहन रेखा के पश्चिमी सिरे पर नियंत्रण की योजना
थी और पंडित नेहरू ने इस फैसले से दुनिया को अवगत करा दिया था। बचाव में चीनी हमला
'अग्रिम आत्मरक्षा' के
अंतरराष्ट्रीय सिद्घांत के तहत पूरी तरह से न्यायोचित था।
नेविल का कहना है कि 1962 के बाद से भारत और चीन के बीच रिश्ते हर
क्षेत्र में विकसित हुए हैं। बस एक क्षेत्र इससे अछूता रहा है और वह है सीमा से
जुड़ा विवाद। इस पर किसी तरह की कोई प्रगति नहीं हुई है।
सीमा विवाद को लेकर भारत के नजरिए पर भी
कई जानकार सवाल उठाते रहे हैं। नेविल को भी इस मुद्दे पर भारत से ऐतराज है। नेविल
के मुताबिक राजनयिक बातचीत के जरिए सीमा विवाद को सुलझाने का जो तरीका
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य रहा है, उसे न
स्वीकार करने का हठी रवैया भारत की प्रत्येक सरकार का रहा है और यह पंडित जवाहर
लाल नेहरू के शासनकाल से ही जारी है। चीन के दूसरे सभी पड़ोसियों ने अपनी सीमा का
विवाद इसी मित्र भाव से निपटाए हैं।
भारत और चीन के बीच उलझे हुए सीमा विवाद
पर नेविल ने कहा कि भारत को लंबे समय से लंबित औपचारिक सीमा वार्ता के चीन के
प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए। चीन सरकार के साथ स्वयं पंडित नेहरू एवं उसके बाद
उनके उत्तराधिकारियों ने जो भी वार्ताएं की, वह निष्फल
साबित हुई हैं।
पिछले महीने अमेरिकी थिंक टैंक कारनेगी
एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय वायुसेना (आईएएफ) को
चेताया है। उसके मुताबिक चीन और पाकिस्तान से भविष्य में होने वाले किसी भी
संभावित युद्ध के लिए आईएएफ को काफी तैयारी करनी होगी। संगठन की रिपोर्ट में करगिल
की लड़ाई को आईएएफ के लिए ‘मामूली
परीक्षण’ बताया गया है।
रिपोर्ट कहती है, ‘आईएएफ के लिए करगिल का अंत अच्छा था। लेकिन इस
अभियान का दायरा सीमित था। उन्हें गुंजाइश दी जाती तो वे अधिक बेहतर प्रदर्शन कर
सकते थे।’ रिपोर्ट के मुताबिक, ‘करगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ ने भारतीय खुफिया
तंत्र की नाकामी को सामने ला दिया था। ऐसा खतरा भविष्य पेश नहीं आएगा, ऐसा नहीं
कहा जा सकता। पड़ोसी चीन व पाकिस्तान से पारंपरिक युद्ध की स्थिति भी बन सकती है।
इसके लिए भारतीय सैन्य कमांडरों को तैयार रहना होगा।’
भारत और चीन के बीच आक्रामक सैन्य
व्यवहार की एक वजह अगर 1962 में हुई
लड़ाई है, तो सीमा विवाद समेत कई दूसरी वजहें भी इसके लिए
कम जिम्मेदार नहीं हैं। चीन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से मैकमोहन रेखा के अस्तित्व
को नहीं मानता। भारत ने दक्षिणी तिब्बत का
हिस्सा जान-बूझ कर कब्जा कर रखा है, जिसे वह
अरुणाचल प्रदेश बताता है, भारत और
चीन के बीच सीमा विवाद और विरोधाभास की असल जड़ यही है।
भारत ने चीन की सीमा पर अपने सैनिकों की
संख्या में जबरदस्त इजाफा किया है। वह सैन्य साजो-सामान तैयार करने के मामले में
भी अपना निवेश बढ़ाता जा रहा है। चीन भी लगातार सीमा पर भारत को घेरने की मजबूत
तैयारी करता रहा है और कई बार भारतीय सीमा में उसके सैनिक घुस आए हैं। ऐसे में
दोनों देशों के बीच तनाव की जड़ (सीमा विवाद) खत्म होने की संभावना मजबूत दिखाई
नहीं देती।
चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए)
के सैनिकों ने लद्दाख में बीते ढाई महीनों के भीतर दो बार घुसपैठ की है। सूत्रों
के मुताबिक ताजा घुसपैठ चुमर क्षेत्र में हुई है।
एक साल पहले इसी क्षेत्र में चीन के दो
हेलिकॉप्टर भारतीय हवाई सीमा में घुस आए थे।
एक टीवी चैनल के मुताबिक, घुसपैठ की
ताजा घटनाओं का लेकर दोनों देशों के बीच सीमा बैठकें भी हुईं। भारत ने पहले कर्नल
स्तर पर फिर ब्रिगेडियर स्तर पर मामले को उठाया।
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