भारत में क़ानून की क़िताब में 300 से अधिक
क़ानून हैं जो औपनिवेशक शासन के समय से चले आ रहे हैं।
श्रम, निजी कंपनियों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण, टैक्स वसूली के कुछ क़ानून बेकार
और इस्तेमाल से बाहर हैं और अक्सर इनका उपयोग लोगों को परेशान करने में किया जाता
है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि 'बेकार क़ानूनों' से भारत को निजात दिलाना
भी उनका एक मिशन है।
मोदी सरकार ने ऐसे 36 पुराने क़ानूनों को ख़त्म करने के लिए विधेयक पहले ही संसद
में पेश कर दिया है।
दिल्ली के एक नागरिक संगठन ने एक क़दम आगे बढ़कर ऐसे 100 क़ानूनों की सूची तैयार
की है जिन्हें क़ानून की क़िताब से हटाने से ज़रूरत है। इनमें दस कानूनों की
जानकारी दे रहे हैं सौतिक बिश्वास।

इस क़ानून में ज़मीन में दबी कोई भी वस्तु और कम
से कम 10 रुपये मूल्य की चीज़ का जिक्र है।
क़ानून के मुताबिक ऐसा खजाना पाने वाले व्यक्ति को इसकी सूचना वरिष्ठ स्थानीय
अधिकारी को देनी होगी।
यदि इसे पाने वाला लूट के इस सामान को सरकार को सौंपने में विफल रहता है तो
"इस खजाने का हिस्सा महारानी साहिबा का होगा।" यहां ध्यान देने वाली बात
यह है कि अंग्रेजों ने भारत 1947 में ही छोड़ दिया था।

बंगलौर
के पादरी वॉल्टर जेम्स मैकडोनल्ड रेडवुड ने अपने समय में इस विश्वास के साथ स्थानीय लोगों के कई विवाह संपन्न कराए, कि वह ऐसा करने के लिए अधिकृत हैं।
इन शादियों को मान्यता देने के लिए यह क़ानून बनाया गया।
साल्ट सेस एक्ट, 1953
विशेष प्रशासनिक ख़र्चों के लिए नमक निर्माताओं
पर यह उपकर लगाया गया। 40 किलो नमक पर 14 पैसे उपकर लगाया गया था।
978 में एक उच्चस्तरीय कमेटी ने भी क़ानून को ख़त्म करने की सिफारिश की थी। कमेटी
का कहना था कि टैक्स वसूली की लागत इस मद में कुल प्राप्त टैक्स के आधे से अधिक
है।

इस क़ानून के तहत टेलीग्राफ वायर्स के लिए नियम
तय हैं। टेलीग्राफ वायर रखने वाले व्यक्ति को इसकी मात्रा के बारे में अधिकारियों
को सूचित करना होगा।
सिर्फ़ दस पाउंड तक ही वायर रख सकते हैं, इससे ज़्यादा वायर होने पर अतिरिक्त वायर
को पिघलाना होगा।
इस क़ानून के साथ समस्या यह है कि भारत में आखिरी टेलीग्राम जुलाई 2013 में भेजा
गया था, इसके बाद से ये सेवा बंद है।

इस क़ानून के मुताबिक संघीय सरकार को एक स्थान
से दूसरे स्थान तक पत्र भेजने के विशेषाधिकार दिए गए थे।
भारत में अब कोरियर सेवा ने इस क़ानून का तोड़ भी निकाल लिया है और चिट्ठियों के
बजाय 'दस्तावेज़' भेजने में जुटी हुई है।
दि सराय एक्ट, 1867
145 साल पुराना यह क़ानून जन सरायों (विश्राम गृह) के प्रबंधन और उस जगह पर
हानिकारक वनस्पति हटाने को लेकर है।
इस क़ानून के मुताबिक सरायों को यात्रियों को मुफ़्त पानी देना चाहिए। ख़बरों के
मुताबिक इस क़ानून का दुरुपयोग अक्सर होटल मालिकों के उत्पीड़न में किया जाता है।

यह क़ानून युवाओं के बीच हानिकारक प्रकाशनों के
प्रसार पर रोक लगाने के लिए बनाया गया था। हानिकारक प्रकाशन जिसमें 'तस्वीरें या
कहानी हिंसक या क्रूर हो' या 'प्रतिकारक या भयानक किस्म' की घटनाएं हों।
'प्रतिकारक या भयानक' शब्दों का दायरा व्यापक है और कई लोगों को मानना है कि
इन्हें भी उत्पीड़न का हथियार बनाया जाता है।
दि शेरिफ़ फ़ीस एक्ट, 1852
इस क़ानून में तत्कालीन बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास के शैरिफ को अदालत द्वारा जारी
प्रक्रियाओं को लागू करने की एवज प्रोत्साहन राशि देने की व्यवस्था थी। शेरिफ़
स्थानीय हाईकोर्ट के आदेश, रिट्स और वारंट्स सर्व करते थे।
शेरिफ़ अब किसी तरह का क़ानूनी काम नहीं करते। इसलिए इस क़ानून का अब कोई मतलब
नहीं है।

इस क़ानून के तहत बड़े अखबारों की कीमत, पन्ने तय करने और ख़बर और विज्ञापन का अनुपात तय करने के लिए नियम बने हैं। इन नियमों का उल्लंघन करने पर प्रकाशक के ख़िलाफ़ एक हज़ार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है।
दि संथाल परगना एक्ट, 1855
इस पक्षपातपूर्ण औपनिवेशक क़ानून के तहत भारत के संथाल आदिवासियों को आम काऩूनों और नियमों से छूट दी गई क्योंकि वे 'असभ्य नस्ल' थे।
No comments:
Post a Comment