Friday 5 September 2014

कांग्रेस ने किस तरह किया न्‍यायपालिका को भ्रष्‍ट, जानिए एक-एक जज की हकीकत!

Photo: पिछले 10 साल में कांग्रेस ने किस तरह किया न्‍यायपालिका को भ्रष्‍ट, जानिए एक-एक जज की हकीकत!

सुप्रीम कोर्ट के जज और मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू के एक बयान के कारण सोमवार, 21 जुलाई 2014 को राज्‍यसभा को कुछ समय के लिए स्‍थगित करना पड़ा था। वर्तमान में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मार्कंडेय काटजू  ने आरोप लगाया है कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कार्यकाल में एक जज को भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद पदोन्‍नति दी गई। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू का आरोप है कि तमिलनाडु के एक डिस्ट्रिक्ट जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप होने के बावजूद यूपीए सरकार की एक सहयोगी पार्टी के दबाव के कारण उन्‍हें मद्रास हाई कोर्ट में अडिशनल जज के रूप में प्रमोट किया गया था। इंटेलिजेंस ब्यूरो की तरफ से प्रतिकूल रिपोर्ट दिए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के दो-दो मुख्य न्यायधीशों ने उस आरोपी जज को बचाया, जबकि तीसरे चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन ने उन्हें स्‍थाई करते हुए दूसरे हाई कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया।

कांग्रेस ने न्‍यायपालिका का दुरुपयोग सबसे अधिक नरेंद्र मोदी को कुचलने के लिए किया!
कांग्रेस से नजदीकी के कारण ही सेवानिवृत्‍त होते ही जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का पद मिला था। इस पर नियुक्‍त होते ही जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू  ने कांग्रेस के सबसे बड़े विरोधी नरेंद्र मोदी को चुना और उन पर लगातार हमला बोल दिया था। भारत से लेकर पाकिस्‍तान तक के अंग्रेजी अखबारों में वह नरेंद्र मोदी के खिलाफ लेख लिख रहे थे। देश की जनता से वह अपील जारी कर रहे थे कि वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री न बनाएं। आज जब नरेंद्र मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत से बन गई है तो जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू कांग्रेस पर हमलावर हैं।

कांग्रेस प्रवक्‍ता राशिद अल्‍वी का कहना है कि जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू 'मोदी सरकार' से नजदीकी बढ़ाना चाहते हैं। हो सकता है कि यह संभव हो, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इन्‍हीं नरेंद्र मोदी को नेस्‍तनाबूत करने और जमीन चटाने के लिए कांग्रेस ने न केवल जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्‍य न्‍यायाधीश तक को उपकृत किया था। सीबीआई जांच में घिरे सुप्रीम कोर्ट के जज तक से मोदी पर हमला कराया जा रहा था और इसके एवज में उन जजों को लाभान्वित किया जा रहा था। आइए आपको बताते हैं कि आज मार्कंडेय काटजू को झूठ बताने वाली कांग्रेस पार्टी ने सत्‍ता में रहते हुए किस से नरेंद्र मोदी को नेस्‍तनाबूत करने के लिए न्‍यायपालिका को भ्रष्‍ट किया और किस तरह हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में बैठे जजों ने कानून को ताक पर रखकर नरेंद्र मोदी को देश की जनता द्वारा चुना हुआ मुख्‍यमंत्री नहीं, बल्कि अपना दुश्‍मन समझ कर बर्ताव किया! 

जस्टिस आफताब आलमः
गुजरात पर निर्णय देने वाली सुप्रीम कोर्ट के दो खंडपीठ वाली जजों के बेंच में शामिल रहे पूर्व जज जस्टिस आफताब आलम पर ‘सांप्रदायिक सोच’ का आरोप लग चुका है। यही नहीं, उनकी बेटी का मोदी को बदनाम करने में जुटे एनजीओ गिरोह के साथ आर्थिक गठबंधन भी सामने आ चुका है। जस्टिस आफताब आलम की सांप्रदायिक मनोवृत्ति का खुलासा गुजरात हाईकोर्ट के पूर्व जज व गुजरात के पूर्व लोकायुक्त एस.एम.सोनी ने किया। जस्टिस एस.एम.सोनी ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाडि़या को एक कड़ा पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि ‘‘सांप्रदायिक सोच वाले न्यायधीश आफताब आलम को गुजरात दंगे से जुड़े सभी मुकदमों से अलग किया जाए।’’

अपने 10 पन्नों की चिट्ठी में न्यायमूर्ति सोनी ने अनेक प्रमाणों और तथ्यों का हवाला देते हुए लिखा है कि ‘‘मैंने गुजरात दंगो और गुजरात के कई मामलों से जुड़े उन फैसलों का अध्ययन किया है जिसमें जस्टिस आफताब आलम की खण्डपीठ ने फैसला दिया है। अधिकांश फैसले एक खास समुदाय का होने की वजह से पूर्वग्रह से प्रेरित प्रतीत होते हैं।’’ जस्टिस सोनी ने लिखा है कि ‘‘उनके पत्र को सिर्फ पत्र नहीं, बल्कि एक जनहित याचिका (पीआईएल) समझकर देखा जाये।’’ पूर्व जस्टिस सोनी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को जस्टिस आफताब आलम के द्वारा लन्दन में वल्र्ड इस्मालिक फोरम में दिये गए घोर सांप्रदायिक व आपत्तिजनक भाषण की सीडी भी भेजी थी।

जस्टिस आफताब आलम के कारण सुप्रीम कोर्ट को मांगनी पड़ी थी माफीः जस्टिस आलम के कारण एक बार तो सुप्रीम कोर्ट को भी माफी मांगनी पड़ी थी। तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम हाशमी और मुकुल सिन्हा की अगुवाई वाली ‘जनसंघर्ष मंच’ ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी लगाकर मांग की थी कि नानावती कमीशन से कहा जाए कि वह नरेंद्र मोदी को पूछताछ के लिए बुलाएं। सुप्रीम कोर्ट ने इस अर्जी को खारिज करते हुए इस मंच के वकील मुकुल सिन्हा को कड़ी फटकार लगाई थी।

लेकिन इस अर्जी से पहले सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम की खण्डपीठ ने गुजरात सरकार और नानावती कमीशन को नोटिस जारी कर दिया था। इसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया और कहा था कि ‘‘किसी भी जज को कोई भी फैसला सुनाते समय भारत के कानून और संविधान का पालन करना चाहिए। कोई भी न्यायिक आयोग (इस मामले में नानावती कमीशन) पूरी तरह से स्वत्रंत होता है। किसी भी आयोग को नोटिस भेजने की सत्ता सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अपनी गलती सुधारते हुए नोटिस वापस लेता है और सभी पक्षों से इस गलती के लिए खेद प्रकट करता है।’’

जस्टिस आलम, उनकी बेटी शाहरुख, तीस्ता एवं अन्य एनजीओ के आर्थिक संबंधः यह एक जाना हुआ तथ्य है कि इन्हीं जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलम एंटी मोदी कैंप में शामिल एक एटिविस्ट हैं और एनजीओ चलाती हैं। और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि मोदी विरोधी अभियान चलाने वाली तीस्ता सीतलवाड़ आदि हर बार आफताब आलम की खण्डपीठ में ही याचिका दायर करती रही हैं।

तीस्ता सीतलवाड़ के पूर्व सहयोगी रईस खान पठान ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर तीस्ता जावेद सीतलवाड़ एवं जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलम के बीच के आर्थिक संबंधों को उजागर किया था। रईस खान ने दायर अपनी याचिका में लिखा था कि ‘‘गुजरात दंगों से सम्बंधित सभी मामलों को जस्टिस आफताब आलम की पीठ से हटाया जाए। जस्टिस आलम की बेटी शाहरुख आलम के आर्थिक हित तीस्ता व अन्य कई एनजीओ से जुड़े हुए हैं।’’

रईस खान के पत्र के मुताबिक, जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलम ‘पटना कलेक्टिव’ नामक एनजीओ चलाती है। इस एनजीओ को नीदरलैंड्स की संस्था ‘हिवोस‘ से बड़ी मात्रा में धनराशि अनुदान के रूप में मिलती है। यही संस्था तीस्ता सीतलवाड़ के एनजीओ ‘सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस’(सीजेपी) को भी भारी अनुदान देती है। ‘हिवोस’ ने नीदरलैंड की एक और संस्था ‘कोस्मोपोलिस इंस्टीट्यूट’ के साथ मिलकर ‘प्रमोटिंग प्लूरिज्म नॉलेज प्रोग्राम’ नाम से शोध पत्रों की एक श्रृंखला को प्रकाशित किया था। इसमें स्वयं जस्टिस आफताब आलम ने लंदन में ‘द आइडिया ऑफ सेक्यूलरिज्म एंड सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया’ शीर्षक से एक पेपर प्रस्तुत किया था।

जस्टिस आफताब आलम के कई फैसलों पर कानून के जानकारों ने उठाई उंगली!
कानून के जानकारों व याचिका कर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस आफताब आलम द्वारा गुजरात दंगे और पुलिस मुठभेड़ मामले पर दिए गए कई निर्णयों पर सवाल उठाया था? पीछे आप पढ़ ही चुके हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ एक याचिका पर गलत निर्णय देने के कारण खुद सुप्रीम कोर्ट को भी जस्टिस आफताब आलम के कारण माफी मांगनी पड़ गई थी। मोदी विरोधी गिरोह की अगुवाई करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ व निलंबित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट आदि अकसर जस्टिस आफताब आलम की कोर्ट में ही याचिका दायर करते थे। यहां संक्षेप में जस्टिस आफताब आलम की खंडपीठ द्वारा दिए गए कुछ ऐसे निर्णयों को रख रहा हूं, जिस पर कानूनी के जानकारों ने उंगली उठाईः-

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर में सीबीआई जांच का आदेशः गैंगस्टर सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गुजरात पुलिस पहले से ही जांच कर रही थी। जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की बेंच ने इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी। अदालत में गुजरात सरकार ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि जब पहले से ही किसी मामले में एक जांच एजेंसी जांच कर रही हो तो उसे इस तरह से बीच में किसी अन्य जांच एजेंसी के हवाले नहीं किया जा सकता है, लेकिन खंडपीठ ने इसे नहीं माना।

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की जांच गुजरात स्पेशल टास्क फोर्स कर रही थी, लेकिन जांच के बीच से जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उसे केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई के हवाले कर दिया। इसी मामले में सीबीआई ने गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह को गिरफ्तार किया था। कई महीने जेल में रहने के बाद अमित शाह को इस शर्त पर जमानत मिली थी कि वो गुजरात में प्रवेश नहीं करेंगे।  

जांच समिति में जज के नाम की संस्तुतिः जस्टिस आफताब आलम ने गुजरात एनकाउंटर की जांच के लिए गठित समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी पंसद के सेवानिवृत्त जज को बैठाना चाहा था। फरवरी 2012 में जस्टिस आलम ने वर्ष 2002-2006 के बीच हुए एनकाउंटर मामले की जांच के लिए बनाई गई निगरानी समिति के अध्यक्ष पद के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज का नाम लेते हुए उन्हें नियुक्त करने का मौखिक आदेश दे दिया था।

दरअसल इस मामले की जांच जस्टिस शाह कमेटी कर रही थी, लेकिन निजी कारण का हवाला देते हुए जस्टिस शाह ने इस समिति के प्रमुख पद से खुद को हटा लिया, जिसके बाद गुजरात सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के आर व्यास को इस समिति का चेयरमैन नियुक्त किया था। इस पर जस्टिस आफताब आलम की खंडपीठ ने अपनी पसंद के जज का नाम सुझा दिया।

बाद में जस्टिस आलम ने अदालत में मौजूद पत्रकारों को यह कहा कि जिस जज का नाम मैंने सुझाया है उसका नाम वह अदालत के बाहर न ले जाएं और अपने अखबार में प्रकाशित न करें। यह कोई औपचारिक आदेश नहीं था। उन्होंने मीडिया को जोर देकर कहा कि मेरे द्वारा सुझाए गए जज का नाम आदेश का हिस्सा नहीं है इसलिए किसी भी हाल में उनके नाम का उल्लेख समाचार पत्रों में नहीं होना चाहिए, अन्यथा उस जज को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा। गुजरात सरकार के एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि किसी कमेटी या कमीशन के गठन और उसके अध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार सरकार में निहित होता है।  

जस्टिस आलम ने तीस्ता को जांच से बचायाः दंगे में मारे गए लोगों की कब्र अवैध तरीके से खुदवा कर उनकी लाश निकालने और सबूतों से छेड़छाड़ के मामले में गुजरात सरकार ने जब जांच का आदेश दिया तो सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस आफताब आलम ने सरकार पर ही सवाल उठा दिया। फरवरी 2012 में अपने एक आदेश में जस्टिस आलम की खंडपीठ ने कहा कि यह शत-प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को सरकार द्वारा परेशान करने का प्रयास है। इस तरह की जांच गुजरात सरकार पर संदेह उत्पन्न करता है। गुजरात सरकार की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील प्रदीप घोष को जस्टिस आलम की खंडपीठ ने कहा कि आपको मेरी सलाह है कि आप सरकार से कहें कि इस तरह के मुकदमे न दर्ज करें।  ज्ञात हो कि तीस्ता सीतलवाड़ पर आरोप था कि उसने बिना पुलिस को सूचित किए ही 2002 के दंगे में पंडरवारा व खानपुर तालुका के आसपास के गांव के मारे गए 28 लोगों के शवों को न केवल कब्र खोदकर निकाला, बल्कि सबूतों से भी छेड़छाड़ की।  

संजीव भट्ट के खिलाफ ई-मेल हैकिंग की जांच रुकवाईः जस्टिस आफताब आलम व जस्टिस रंजना देसाई की खंडपीठ ने वर्ष 2012 में निलंबित आईपीएस संजीव भट्ट के खिलाफ अवैध रूप से ई-मेल हैकिंग की जांच रुकवा दी थी। संजीव भट्ट पर आरोप था कि उसने राज्य सरकार के एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता के ई-मेल की हैकिंग की और उसके जरिए महत्वपूर्ण सूचनाओं को सरकार विरोधी लोगों तक पहुंचाया। तुषार मेहता की शिकायत पर अगस्त 2011 में संजीव भट्ट के खिलाफ वस्तारपुर पुलिस स्टेशन में मुकदमा दर्ज किया गया था।  

संजीव भट्ट के खिलाफ ट्रायल चलने से रोकाः अप्रैल 2012 में जस्टिस आफताब आलम व जस्टिस रंजना देसाई की खंडपीठ ने निलंबित आईपीएस संजीव भट्ट के खिलाफ ट्रायल पर रोक लगा दिया। उन पर आरोप था कि दंगे में नरेंद्र मोदी को फंसाने के लिए उन्होंने अपने सरकारी ड्राइवर के.डी पंत पर झूठी गवाही देने के लिए दबाव डाला है। आरोप के मुताबिक संजीव भट्ट ने के.डी पंत से कहा था कि वह अदालत में यह कहे कि वह 27 फरवरी 2002 को उसे नरेंद्र मोदी के आवास पर ले गया था, जहां मोदी ने गुजरात पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की थी।  ड्राइवर के.डी पंत ने संजीव भट्ट की झूठ में साथ देने से मना कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की जांच में यह साबित हो गया है कि गोधरा दंगे के बाद राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में संजीव भट्ट शामिल ही नहीं हुआ था।

जस्टिस तरुण चटर्जीः
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की खंडपीठ ने ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा भगोड़ा घोषित अपराधी सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जांच को जनवरी 2012 में सीबीआई के हवाले किया था। अपने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक दिन पहले जस्टिस तरुण चटर्जी ने सोहराबुद्दीन शेख मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी, लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि वही सीबीआई जस्टिस तरुण चटर्जी के खिलाफ उत्तरप्रदेश प्रोविडेंट फंड घोटाले में जांच कर रही थी। करोड़ों रुपए के गाजियाबाद प्रोविडंट फंड घोटाले में जस्टिस चटर्जी भी एक आरोपी थे।

गुजरात के पूर्व गृहमंत्री व सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अभियुक्त बनाए गए अमित शाह के वकील राम जेठमलानी ने नवंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट में सवाल उठाते हुए कहा था कि ‘‘खुद घोटाले में घिरे एक जज की जांच जब सीबीआई कर रही हो तो वह किसी अन्य मामले की जांच उसी एजेंसी सीबीआई को कैसे हस्तांतरित कर सकते हैं? यही कारण है कि न्यायपालिका संदेह के घेरे में है और अब तो लगता है कि न्यायपालिका को भी लोकपाल के दायरे में ले आना चाहिए?’’

राम जेठमलानी की जिरह के अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की यूपीए सरकार से इस बारे में जवाब तलब किया था। सुप्रीम कोर्ट का सवाल ही अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है? सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था कि ‘‘सोहराबुद्दीन शेख फेक एनकाउंटर मामले को सीबीआई को हस्तांतरित करने के लिए केंद्र सरकार और जस्टिस तरुण चटर्जी के बीच क्या किसी तरह का गुप्त समझौता हुआ था?’’

जानकारी के लिए बता दूं कि उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद जिला जज प्रोविडेंट फंड (पी.एफ) घोटाले में फंसे जस्टिस तरुण चटर्जी सहित 23 जजों के खिलाफ सबूत जुटाने के बाद सीबीआई ने कहा था कि इन सभी के खिलाफ पी.एफ घोटाले में संलिप्तता के पुख्ता सबूत हैं, जिसके लिए इनके खिलाफ जांच का आदेश दिया जाए। जांच शुरू होने के दौरान इस घोटाले के सबसे बड़े गवाह आशुतोष अस्थाना का गाजियाबाद के डासना जेल में संदिग्ध परिस्थिति में मौत हो गई थी। उसके परिवार वालों ने आरोप लगाया था कि चूंकि इस घोटाले में जजों सहित कई बड़े लोगों का नाम शामिल था, इसलिए आशुतोष की जेल में ही जहर देकर हत्या करवा दी गई!  

उस दौरान इंडिया टूडे ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें सीबीआई सूत्रों के हवाले से यह खबर प्रकाशित की गई थी कि वर्ष 2008 के आखिर में सीबीआई ने जस्टिस चटर्जी के घर पर जाकर पूछताछ की थी। उस समय जस्टिस चटर्जी सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त हो चुके थे। उनसे पूछताछ के लिए सुप्रीम कोर्ट आॅफ इंडिया के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन से बकायदा इजाजत ली गई थी। जस्टिस चटर्जी से आशुतोष अस्थाना द्वारा दिए गए बयान के आधार पर पूछताछ की गई थी, जिसमें उसने उनका नाम लिया था।

अस्थाना के आरोप के मुताबिक उसने जस्टिस तरुण चटर्जी को घरेलू उपयोग की बहुत सारी सामग्री रिश्वत में दी थी, जिसे गाजियाबाद से कोलकाता स्थित उनके घर में पहुंचाया गया था। सीबीआई ने जस्टिस तरुण चटर्जी के बेटे अनिरुद्ध चटर्जी से भी कोलकाता में पूछताछ की थी। अस्थाना के आरोप के मुताबिक उसने अनिरुद्ध को लैपटॉप और मोबाइल फोन दिया था। हालांकि जस्टिस चटर्जी ने इन सभी आरोपों को नकार दिया था, लेकिन सीबीआई का कहना था कि उनके पास जस्टिस तरुण चटर्जी के खिलाफ पर्याप्त संख्या में दस्तावेजी सबूत हैं।

अमित शाह के वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट के अंदर सुनवाई के दौरान कहा था कि ‘‘दुनिया के आपराधिक मुकदमों के इतिहास में कभी भी किसी न्यायाधीश ने ऐसा निर्णय नहीं दिया है जिसमें वह उसी एजेंसी को एक मामले की जांच सौंपते हैं, जो एजेंसी खुद उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही हो?’’

लोकायुक्त विवाद व जस्टिस आरए मेहताः गुजरात लोकायुक्त नियुक्त की लड़ाई का पूरा विवाद तब शुरू हुआ जब गुजरात की राज्यपाल डॉ कमला बेनीवाल ने 25 अगस्त 2011 को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके मंत्रीमंडल की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए सेवानिवृत्त जज आर.ए. मेहता को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया था। राजनीतिक पंडितों ने इसे गुजरात सरकार के विरुद्ध कांग्रेसी राज्यपाल कमला बेनीवाल के जरिए कांग्रेस आलाकमान द्वारा खेली गई चाल करार दिया था। कांग्रेस लोकायुक्त के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करना चाहती थी।

जस्टिस मेहता के नाम पर असली विवाद की वजहः अवकाश प्राप्त जस्टिस रमेश अमृतलाल मेहता यानी आर.ए मेहता की खिलाफत मोदी सरकार ने क्यों की? दरअसल गुजरात दंगे के बाद पूर्व जज आर.ए. मेहता विभिन्न एनजीओ के मंच से नरेंद्र मोदी पर लगातार हमला कर रहे थे। गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा था कि जस्टिस मेहता मौजूदा शासन के प्रति पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। अपने पूर्वग्रह के कारण वह निष्पक्षता से अपना दायित्व नहीं निभा सकेंगे। राज्य सरकार ने गुजरात दंगों को लेकर जस्टिस मेहता द्वारा दिए गए वक्तव्यों को अदालत में प्रमुखता से रखा था। पूर्व न्यायाधीश मेहता अपनी नियुक्ति के पहले मोदी विरोधी विभिन्न एनजीओ के मंच से गुजरात सरकार को घेरते रहे थे। यही नहीं, वह एक एनजीओ के ट्रस्टी भी हैं।

वर्ष 2002 में हुए दंगों के बाद जस्टिस मेहता ने गुजरात सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष से मिलकर शिकायत की थी और विभिन्न एनजीओ के मंच से अन्य बुद्धिजीवियों की ही तरह उन्होंने भी नरेंद्र मोदी को इसके लिए जिम्मेवार ठहराया था। वह एनजीओ के लिए कितने चहेते थे इसका पता इसी से चलता है कि जस्टिस शाह के निधन के बाद गुजरात दंगों की जांच के लिए बने आयोग के अध्यक्ष पद के लिए एनजीओ ‘जनसंघर्ष मंच’ ने जस्टिस मेहता का नाम सुझाया था। बाद में इस आयोग के मुखिया जस्टिस नानावती बने और यह ‘नानावती आयोग’ या ‘नानावती शाह कमीशन’ कहलाया।

गुजरात सरकार का कहना था कि जस्टिस मेहता शुरू से ही राज्य सरकार की निंदा करने वाले एनजीओ के लिए चहेते रहे हैं। ऐसे में न्यायमूर्ति मेहता लोकायुक्त के रूप में निष्पक्षता पूर्वक अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन नहीं कर पाएंगे।’’

गुजरात मामले की सुनवाई करने वाले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होते ही केंद्र सरकार करती रही है उपकृत:
वर्तमान वित्‍त मंत्री अरुण जेटली ने फरवरी 2013 में सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद विभिन्न आयोगों में जजों की नियुक्ति पर नई बहस छेड़ दी थी। इससे पूर्व वर्ष 2010 में पायनियर अखबार में टिप्पणीकार अब्राहम थॉमस ने एक लेख लिखा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व कई अन्य न्यायाधीशों का जिक्र करते हुए कहा गया था कि जिन भी जजों ने नरेंद्र मोदी पर शिकंजा कसा, केंद्र की यूपीए सरकार ने उन्हें तुरंत पद व पुरस्कार देकर सम्मानित व उपकृत किया। उस लेख का शीर्षक था,‘‘इट्स ऑफिशियल: बैट मोदी गेट रिवार्ड।’’

जस्टिस आफताब आलम अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए। उन्हें सेवानिवृत्त हुए दो महीने भी नहीं हुए थे कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की केंद्र सरकार ने उन्हें टेलिकॉम डिस्प्यूट सेटलमेंट एंड एपेलेट ट्रिब्यूनल (टीडीसेट) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया वीएन खरे को कौन भूल सकता है? गुजरात दंगे की सुनवाई के दौरान मोदी सरकार के खिलाफ उन्होंने बेहद कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था कि गुजरात सरकार ‘राजधर्म’ को निभाने में असफल रही थी। जस्टिस वीएन खरे के आदेश पर ही दंगों की अदालती सुनवाई की निगरानी शुरू हुई थी। बेस्ट बेकरी केस में 21 अभियुक्तों को बेगुनाह मानते हुए बरी कर दिया गया था, लेकिन जस्टिस खरे ने बेस्ट बेकरी की फाइल दोबारा से खुलवाई थी। जस्टिस खरे वर्ष 2004 में सेवानिवृत्त हुए थे और वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने उन्हें भारत रत्न के बाद देश के दूसरे नंबर के सर्वोच्च नागरिकता सम्मान ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया था।

इसी प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के जस्टिस अरिजीत पसायत का वह वाक्य सभी को याद है, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी को ‘आधुनिक नीरो’ की संज्ञा दे डाली थी। जस्टिस अरिजीत पसायत ने ही बेस्ट बेकरी केस की सुनवाई को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में चलाने का आदेश पारित किया था। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले और अपने कार्यकाल के आखिरी दिन उन्होंने दंगे में नरेंद्र मोदी व उनके मंत्रीमंडल के खिलाफ एसआईटी जांच का आदेश पारित कर दिया था। चुनाव में कांग्रेस ने इसका भरपूर फायदा उठाया।

9 मई 2009 को जस्टिस अरिजीत पसायत सेवानिवृत्त हुए और दो सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार ने उन्हें कम्पीटीशन एपिलेट ट्रिब्यूनल (कैट) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। 20 मई 2009 को उन्होंने पदभार संभाला था। ‘कैट’ के बाद वर्ष 2012 में जस्टिस पसायत को यूपीए सरकार ने आॅथरिटी फॉर एडवांस रूलिंग सेंट्रल एक्साइज, कस्टम एंड सर्विस टैक्स का अध्यक्ष नियुक्त कर किया था।

कुछ इसी तरह का मसला जस्टिस तरुण चटर्जी का भी है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की खंडपीठ ने ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा भगोड़ा घोषित अपराधी सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जांच को सीबीआई के हवाले किया था। अपने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक दिन पहले जस्टिस तरुण चटर्जी ने सोहराबुद्दीन मामले की जांच सीबीआई को सौंपा था। सेवानिवृत्त होते ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जस्टिस तरुण चटर्जी को आसाम और अरुणाचल प्रदेश सीमा विवाद मामले में मध्यथ के रूप में नियुक्त कर उन्हें उनके पूर्व के कार्य के लिए उपकृत करने का प्रयास किया।

मशहूर वकील रामजेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट में जिरह के दौरान कहा था कि  ‘‘साफ दिखता है कि जस्टिस तरुण चटर्जी ने निजी हित में पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर निर्णय लिया है। केंद्र सरकार ने सेवानिवृत्त होने के तत्काल बाद उन्हें नौकरी देकर उपकृत किया है, जो उनके निर्णय में निहित आर्थिक हित को दर्शाता है।’’

और अंत में...आखिर क्‍या कहा मार्केंडेय काटजू ने?
मार्केडेय काटजू ने एक अखबार से बातचीत में कहा, मद्रास हाई कोर्ट के एक जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे थे। उन्हें सीधे तौर पर तमिलनाडु में डिस्ट्रिक्ट जज के तौर पर नियुक्त कर दिया गया था। डिस्ट्रिक्ट जज के तौर पर इस जज के कार

पिछले 10 साल में कांग्रेस ने किस तरह किया न्यायपालिका को भ्रष्, जानिए एक-एक जज की हकीकत!

सुप्रीम कोर्ट के जज और मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू के एक बयान के कारण सोमवार, 21 जुलाई 2014 को राज्यसभा को कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ा था। वर्तमान में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मार्कंडेय काटजू ने आरोप लगाया है कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कार्यकाल में एक जज को भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद पदोन्नति दी गई। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू का आरोप है कि तमिलनाडु के एक डिस्ट्रिक्ट जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप होने के बावजूद यूपीए सरकार की एक सहयोगी पार्टी के दबाव के कारण उन्हें मद्रास हाई कोर्ट में अडिशनल जज के रूप में प्रमोट किया गया था। इंटेलिजेंस ब्यूरो की तरफ से प्रतिकूल रिपोर्ट दिए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के दो-दो मुख्य न्यायधीशों ने उस आरोपी जज को बचाया, जबकि तीसरे चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन ने उन्हें स्थाई करते हुए दूसरे हाई कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया।

कांग्रेस ने न्यायपालिका का दुरुपयोग सबसे अधिक नरेंद्र मोदी को कुचलने के लिए किया!
कांग्रेस से नजदीकी के कारण ही सेवानिवृत् होते ही जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का पद मिला था। इस पर नियुक् होते ही जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू ने कांग्रेस के सबसे बड़े विरोधी नरेंद्र मोदी को चुना और उन पर लगातार हमला बोल दिया था। भारत से लेकर पाकिस्तान तक के अंग्रेजी अखबारों में वह नरेंद्र मोदी के खिलाफ लेख लिख रहे थे। देश की जनता से वह अपील जारी कर रहे थे कि वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाएं। आज जब नरेंद्र मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत से बन गई है तो जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू कांग्रेस पर हमलावर हैं।

कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी का कहना है कि जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू 'मोदी सरकार' से नजदीकी बढ़ाना चाहते हैं। हो सकता है कि यह संभव हो, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इन्हीं नरेंद्र मोदी को नेस्तनाबूत करने और जमीन चटाने के लिए कांग्रेस ने केवल जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के मुख् न्यायाधीश तक को उपकृत किया था। सीबीआई जांच में घिरे सुप्रीम कोर्ट के जज तक से मोदी पर हमला कराया जा रहा था और इसके एवज में उन जजों को लाभान्वित किया जा रहा था। आइए आपको बताते हैं कि आज मार्कंडेय काटजू को झूठ बताने वाली कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में रहते हुए किस से नरेंद्र मोदी को नेस्तनाबूत करने के लिए न्यायपालिका को भ्रष् किया और किस तरह हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में बैठे जजों ने कानून को ताक पर रखकर नरेंद्र मोदी को देश की जनता द्वारा चुना हुआ मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि अपना दुश्मन समझ कर बर्ताव किया!

जस्टिस आफताब आलमः

गुजरात पर निर्णय देने वाली सुप्रीम कोर्ट के दो खंडपीठ वाली जजों के बेंच में शामिल रहे पूर्व जज जस्टिस आफताब आलम परसांप्रदायिक सोचका आरोप लग चुका है। यही नहीं, उनकी बेटी का मोदी को बदनाम करने में जुटे एनजीओ गिरोह के साथ आर्थिक गठबंधन भी सामने चुका है। जस्टिस आफताब आलम की सांप्रदायिक मनोवृत्ति का खुलासा गुजरात हाईकोर्ट के पूर्व जज गुजरात के पूर्व लोकायुक्त एस.एम.सोनी ने किया। जस्टिस एस.एम.सोनी ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाडि़या को एक कड़ा पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि ‘‘सांप्रदायिक सोच वाले न्यायधीश आफताब आलम को गुजरात दंगे से जुड़े सभी मुकदमों से अलग किया जाए।’’

अपने 10 पन्नों की चिट्ठी में न्यायमूर्ति सोनी ने अनेक प्रमाणों और तथ्यों का हवाला देते हुए लिखा है कि ‘‘मैंने गुजरात दंगो और गुजरात के कई मामलों से जुड़े उन फैसलों का अध्ययन किया है जिसमें जस्टिस आफताब आलम की खण्डपीठ ने फैसला दिया है। अधिकांश फैसले एक खास समुदाय का होने की वजह से पूर्वग्रह से प्रेरित प्रतीत होते हैं।’’ जस्टिस सोनी ने लिखा है कि ‘‘उनके पत्र को सिर्फ पत्र नहीं, बल्कि एक जनहित याचिका (पीआईएल) समझकर देखा जाये।’’ पूर्व जस्टिस सोनी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को जस्टिस आफताब आलम के द्वारा लन्दन में वल्र्ड इस्मालिक फोरम में दिये गए घोर सांप्रदायिक आपत्तिजनक भाषण की सीडी भी भेजी थी।

जस्टिस आफताब आलम के कारण सुप्रीम कोर्ट को मांगनी पड़ी थी माफीः जस्टिस आलम के कारण एक बार तो सुप्रीम कोर्ट को भी माफी मांगनी पड़ी थी। तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम हाशमी और मुकुल सिन्हा की अगुवाई वालीजनसंघर्ष मंचने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी लगाकर मांग की थी कि नानावती कमीशन से कहा जाए कि वह नरेंद्र मोदी को पूछताछ के लिए बुलाएं। सुप्रीम कोर्ट ने इस अर्जी को खारिज करते हुए इस मंच के वकील मुकुल सिन्हा को कड़ी फटकार लगाई थी।

लेकिन इस अर्जी से पहले सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम की खण्डपीठ ने गुजरात सरकार और नानावती कमीशन को नोटिस जारी कर दिया था। इसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया और कहा था कि ‘‘किसी भी जज को कोई भी फैसला सुनाते समय भारत के कानून और संविधान का पालन करना चाहिए। कोई भी न्यायिक आयोग (इस मामले में नानावती कमीशन) पूरी तरह से स्वत्रंत होता है। किसी भी आयोग को नोटिस भेजने की सत्ता सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अपनी गलती सुधारते हुए नोटिस वापस लेता है और सभी पक्षों से इस गलती के लिए खेद प्रकट करता है।’’

जस्टिस आलम, उनकी बेटी शाहरुख, तीस्ता एवं अन्य एनजीओ के आर्थिक संबंधः यह एक जाना हुआ तथ्य है कि इन्हीं जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलम एंटी मोदी कैंप में शामिल एक एटिविस्ट हैं और एनजीओ चलाती हैं। और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि मोदी विरोधी अभियान चलाने वाली तीस्ता सीतलवाड़ आदि हर बार आफताब आलम की खण्डपीठ में ही याचिका दायर करती रही हैं।

तीस्ता सीतलवाड़ के पूर्व सहयोगी रईस खान पठान ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर तीस्ता जावेद सीतलवाड़ एवं जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलम के बीच के आर्थिक संबंधों को उजागर किया था। रईस खान ने दायर अपनी याचिका में लिखा था कि ‘‘गुजरात दंगों से सम्बंधित सभी मामलों को जस्टिस आफताब आलम की पीठ से हटाया जाए। जस्टिस आलम की बेटी शाहरुख आलम के आर्थिक हित तीस्ता अन्य कई एनजीओ से जुड़े हुए हैं।’’

रईस खान के पत्र के मुताबिक, जस्टिस आफताब आलम की बेटी शाहरुख आलमपटना कलेक्टिवनामक एनजीओ चलाती है। इस एनजीओ को नीदरलैंड्स की संस्थाहिवोससे बड़ी मात्रा में धनराशि अनुदान के रूप में मिलती है। यही संस्था तीस्ता सीतलवाड़ के एनजीओसिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस’(सीजेपी) को भी भारी अनुदान देती है।हिवोसने नीदरलैंड की एक और संस्थाकोस्मोपोलिस इंस्टीट्यूटके साथ मिलकरप्रमोटिंग प्लूरिज्म नॉलेज प्रोग्रामनाम से शोध पत्रों की एक श्रृंखला को प्रकाशित किया था। इसमें स्वयं जस्टिस आफताब आलम ने लंदन में आइडिया ऑफ सेक्यूलरिज्म एंड सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडियाशीर्षक से एक पेपर प्रस्तुत किया था।

जस्टिस आफताब आलम के कई फैसलों पर कानून के जानकारों ने उठाई उंगली!

कानून के जानकारों याचिका कर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस आफताब आलम द्वारा गुजरात दंगे और पुलिस मुठभेड़ मामले पर दिए गए कई निर्णयों पर सवाल उठाया था? पीछे आप पढ़ ही चुके हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ एक याचिका पर गलत निर्णय देने के कारण खुद सुप्रीम कोर्ट को भी जस्टिस आफताब आलम के कारण माफी मांगनी पड़ गई थी। मोदी विरोधी गिरोह की अगुवाई करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ निलंबित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट आदि अकसर जस्टिस आफताब आलम की कोर्ट में ही याचिका दायर करते थे। यहां संक्षेप में जस्टिस आफताब आलम की खंडपीठ द्वारा दिए गए कुछ ऐसे निर्णयों को रख रहा हूं, जिस पर कानूनी के जानकारों ने उंगली उठाईः-

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर में सीबीआई जांच का आदेशः गैंगस्टर सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गुजरात पुलिस पहले से ही जांच कर रही थी। जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की बेंच ने इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी। अदालत में गुजरात सरकार ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि जब पहले से ही किसी मामले में एक जांच एजेंसी जांच कर रही हो तो उसे इस तरह से बीच में किसी अन्य जांच एजेंसी के हवाले नहीं किया जा सकता है, लेकिन खंडपीठ ने इसे नहीं माना।

सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की जांच गुजरात स्पेशल टास्क फोर्स कर रही थी, लेकिन जांच के बीच से जस्टिस आफताब आलम की बेंच ने उसे केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई के हवाले कर दिया। इसी मामले में सीबीआई ने गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह को गिरफ्तार किया था। कई महीने जेल में रहने के बाद अमित शाह को इस शर्त पर जमानत मिली थी कि वो गुजरात में प्रवेश नहीं करेंगे।

जांच समिति में जज के नाम की संस्तुतिः जस्टिस आफताब आलम ने गुजरात एनकाउंटर की जांच के लिए गठित समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी पंसद के सेवानिवृत्त जज को बैठाना चाहा था। फरवरी 2012 में जस्टिस आलम ने वर्ष 2002-2006 के बीच हुए एनकाउंटर मामले की जांच के लिए बनाई गई निगरानी समिति के अध्यक्ष पद के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज का नाम लेते हुए उन्हें नियुक्त करने का मौखिक आदेश दे दिया था।

दरअसल इस मामले की जांच जस्टिस शाह कमेटी कर रही थी, लेकिन निजी कारण का हवाला देते हुए जस्टिस शाह ने इस समिति के प्रमुख पद से खुद को हटा लिया, जिसके बाद गुजरात सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के आर व्यास को इस समिति का चेयरमैन नियुक्त किया था। इस पर जस्टिस आफताब आलम की खंडपीठ ने अपनी पसंद के जज का नाम सुझा दिया।

बाद में जस्टिस आलम ने अदालत में मौजूद पत्रकारों को यह कहा कि जिस जज का नाम मैंने सुझाया है उसका नाम वह अदालत के बाहर ले जाएं और अपने अखबार में प्रकाशित करें। यह कोई औपचारिक आदेश नहीं था। उन्होंने मीडिया को जोर देकर कहा कि मेरे द्वारा सुझाए गए जज का नाम आदेश का हिस्सा नहीं है इसलिए किसी भी हाल में उनके नाम का उल्लेख समाचार पत्रों में नहीं होना चाहिए, अन्यथा उस जज को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा। गुजरात सरकार के एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि किसी कमेटी या कमीशन के गठन और उसके अध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार सरकार में निहित होता है।

जस्टिस आलम ने तीस्ता को जांच से बचायाः 

दंगे में मारे गए लोगों की कब्र अवैध तरीके से खुदवा कर उनकी लाश निकालने और सबूतों से छेड़छाड़ के मामले में गुजरात सरकार ने जब जांच का आदेश दिया तो सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस आफताब आलम ने सरकार पर ही सवाल उठा दिया। फरवरी 2012 में अपने एक आदेश में जस्टिस आलम की खंडपीठ ने कहा कि यह शत-प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को सरकार द्वारा परेशान करने का प्रयास है। इस तरह की जांच गुजरात सरकार पर संदेह उत्पन्न करता है। गुजरात सरकार की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील प्रदीप घोष को जस्टिस आलम की खंडपीठ ने कहा कि आपको मेरी सलाह है कि आप सरकार से कहें कि इस तरह के मुकदमे दर्ज करें। ज्ञात हो कि तीस्ता सीतलवाड़ पर आरोप था कि उसने बिना पुलिस को सूचित किए ही 2002 के दंगे में पंडरवारा खानपुर तालुका के आसपास के गांव के मारे गए 28 लोगों के शवों को केवल कब्र खोदकर निकाला, बल्कि सबूतों से भी छेड़छाड़ की।

संजीव भट्ट के खिलाफ -मेल हैकिंग की जांच रुकवाईः 

जस्टिस आफताब आलम जस्टिस रंजना देसाई की खंडपीठ ने वर्ष 2012 में निलंबित आईपीएस संजीव भट्ट के खिलाफ अवैध रूप से -मेल हैकिंग की जांच रुकवा दी थी। संजीव भट्ट पर आरोप था कि उसने राज्य सरकार के एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता के -मेल की हैकिंग की और उसके जरिए महत्वपूर्ण सूचनाओं को सरकार विरोधी लोगों तक पहुंचाया। तुषार मेहता की शिकायत पर अगस्त 2011 में संजीव भट्ट के खिलाफ वस्तारपुर पुलिस स्टेशन में मुकदमा दर्ज किया गया था।

संजीव भट्ट के खिलाफ ट्रायल चलने से रोकाः 

अप्रैल 2012 में जस्टिस आफताब आलम जस्टिस रंजना देसाई की खंडपीठ ने निलंबित आईपीएस संजीव भट्ट के खिलाफ ट्रायल पर रोक लगा दिया। उन पर आरोप था कि दंगे में नरेंद्र मोदी को फंसाने के लिए उन्होंने अपने सरकारी ड्राइवर के.डी पंत पर झूठी गवाही देने के लिए दबाव डाला है। आरोप के मुताबिक संजीव भट्ट ने के.डी पंत से कहा था कि वह अदालत में यह कहे कि वह 27 फरवरी 2002 को उसे नरेंद्र मोदी के आवास पर ले गया था, जहां मोदी ने गुजरात पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की थी। ड्राइवर के.डी पंत ने संजीव भट्ट की झूठ में साथ देने से मना कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की जांच में यह साबित हो गया है कि गोधरा दंगे के बाद राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में संजीव भट्ट शामिल ही नहीं हुआ था।

जस्टिस तरुण चटर्जीः

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की खंडपीठ ने ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा भगोड़ा घोषित अपराधी सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जांच को जनवरी 2012 में सीबीआई के हवाले किया था। अपने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक दिन पहले जस्टिस तरुण चटर्जी ने सोहराबुद्दीन शेख मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी, लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि वही सीबीआई जस्टिस तरुण चटर्जी के खिलाफ उत्तरप्रदेश प्रोविडेंट फंड घोटाले में जांच कर रही थी। करोड़ों रुपए के गाजियाबाद प्रोविडंट फंड घोटाले में जस्टिस चटर्जी भी एक आरोपी थे।

गुजरात के पूर्व गृहमंत्री सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अभियुक्त बनाए गए अमित शाह के वकील राम जेठमलानी ने नवंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट में सवाल उठाते हुए कहा था कि ‘‘खुद घोटाले में घिरे एक जज की जांच जब सीबीआई कर रही हो तो वह किसी अन्य मामले की जांच उसी एजेंसी सीबीआई को कैसे हस्तांतरित कर सकते हैं? यही कारण है कि न्यायपालिका संदेह के घेरे में है और अब तो लगता है कि न्यायपालिका को भी लोकपाल के दायरे में ले आना चाहिए?’’

राम जेठमलानी की जिरह के अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की यूपीए सरकार से इस बारे में जवाब तलब किया था। सुप्रीम कोर्ट का सवाल ही अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है? सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था कि ‘‘सोहराबुद्दीन शेख फेक एनकाउंटर मामले को सीबीआई को हस्तांतरित करने के लिए केंद्र सरकार और जस्टिस तरुण चटर्जी के बीच क्या किसी तरह का गुप्त समझौता हुआ था?’’

जानकारी के लिए बता दूं कि उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद जिला जज प्रोविडेंट फंड (पी.एफ) घोटाले में फंसे जस्टिस तरुण चटर्जी सहित 23 जजों के खिलाफ सबूत जुटाने के बाद सीबीआई ने कहा था कि इन सभी के खिलाफ पी.एफ घोटाले में संलिप्तता के पुख्ता सबूत हैं, जिसके लिए इनके खिलाफ जांच का आदेश दिया जाए। जांच शुरू होने के दौरान इस घोटाले के सबसे बड़े गवाह आशुतोष अस्थाना का गाजियाबाद के डासना जेल में संदिग्ध परिस्थिति में मौत हो गई थी। उसके परिवार वालों ने आरोप लगाया था कि चूंकि इस घोटाले में जजों सहित कई बड़े लोगों का नाम शामिल था, इसलिए आशुतोष की जेल में ही जहर देकर हत्या करवा दी गई!

उस दौरान इंडिया टूडे ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें सीबीआई सूत्रों के हवाले से यह खबर प्रकाशित की गई थी कि वर्ष 2008 के आखिर में सीबीआई ने जस्टिस चटर्जी के घर पर जाकर पूछताछ की थी। उस समय जस्टिस चटर्जी सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त हो चुके थे। उनसे पूछताछ के लिए सुप्रीम कोर्ट आॅफ इंडिया के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन से बकायदा इजाजत ली गई थी। जस्टिस चटर्जी से आशुतोष अस्थाना द्वारा दिए गए बयान के आधार पर पूछताछ की गई थी, जिसमें उसने उनका नाम लिया था।

अस्थाना के आरोप के मुताबिक उसने जस्टिस तरुण चटर्जी को घरेलू उपयोग की बहुत सारी सामग्री रिश्वत में दी थी, जिसे गाजियाबाद से कोलकाता स्थित उनके घर में पहुंचाया गया था। सीबीआई ने जस्टिस तरुण चटर्जी के बेटे अनिरुद्ध चटर्जी से भी कोलकाता में पूछताछ की थी। अस्थाना के आरोप के मुताबिक उसने अनिरुद्ध को लैपटॉप और मोबाइल फोन दिया था। हालांकि जस्टिस चटर्जी ने इन सभी आरोपों को नकार दिया था, लेकिन सीबीआई का कहना था कि उनके पास जस्टिस तरुण चटर्जी के खिलाफ पर्याप्त संख्या में दस्तावेजी सबूत हैं।

अमित शाह के वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट के अंदर सुनवाई के दौरान कहा था कि ‘‘दुनिया के आपराधिक मुकदमों के इतिहास में कभी भी किसी न्यायाधीश ने ऐसा निर्णय नहीं दिया है जिसमें वह उसी एजेंसी को एक मामले की जांच सौंपते हैं, जो एजेंसी खुद उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही हो?’’

लोकायुक्त विवाद जस्टिस आरए मेहताः गुजरात लोकायुक्त नियुक्त की लड़ाई का पूरा विवाद तब शुरू हुआ जब गुजरात की राज्यपाल डॉ कमला बेनीवाल ने 25 अगस्त 2011 को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उनके मंत्रीमंडल की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए सेवानिवृत्त जज आर.. मेहता को लोकायुक्त नियुक्त कर दिया था। राजनीतिक पंडितों ने इसे गुजरात सरकार के विरुद्ध कांग्रेसी राज्यपाल कमला बेनीवाल के जरिए कांग्रेस आलाकमान द्वारा खेली गई चाल करार दिया था। कांग्रेस लोकायुक्त के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करना चाहती थी।

जस्टिस मेहता के नाम पर असली विवाद की वजहः अवकाश प्राप्त जस्टिस रमेश अमृतलाल मेहता यानी आर. मेहता की खिलाफत मोदी सरकार ने क्यों की? दरअसल गुजरात दंगे के बाद पूर्व जज आर.. मेहता विभिन्न एनजीओ के मंच से नरेंद्र मोदी पर लगातार हमला कर रहे थे। गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा था कि जस्टिस मेहता मौजूदा शासन के प्रति पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं। अपने पूर्वग्रह के कारण वह निष्पक्षता से अपना दायित्व नहीं निभा सकेंगे। राज्य सरकार ने गुजरात दंगों को लेकर जस्टिस मेहता द्वारा दिए गए वक्तव्यों को अदालत में प्रमुखता से रखा था। पूर्व न्यायाधीश मेहता अपनी नियुक्ति के पहले मोदी विरोधी विभिन्न एनजीओ के मंच से गुजरात सरकार को घेरते रहे थे। यही नहीं, वह एक एनजीओ के ट्रस्टी भी हैं।

वर्ष 2002 में हुए दंगों के बाद जस्टिस मेहता ने गुजरात सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अध्यक्ष से मिलकर शिकायत की थी और विभिन्न एनजीओ के मंच से अन्य बुद्धिजीवियों की ही तरह उन्होंने भी नरेंद्र मोदी को इसके लिए जिम्मेवार ठहराया था। वह एनजीओ के लिए कितने चहेते थे इसका पता इसी से चलता है कि जस्टिस शाह के निधन के बाद गुजरात दंगों की जांच के लिए बने आयोग के अध्यक्ष पद के लिए एनजीओजनसंघर्ष मंचने जस्टिस मेहता का नाम सुझाया था। बाद में इस आयोग के मुखिया जस्टिस नानावती बने और यहनानावती आयोगयानानावती शाह कमीशनकहलाया।

गुजरात सरकार का कहना था कि जस्टिस मेहता शुरू से ही राज्य सरकार की निंदा करने वाले एनजीओ के लिए चहेते रहे हैं। ऐसे में न्यायमूर्ति मेहता लोकायुक्त के रूप में निष्पक्षता पूर्वक अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन नहीं कर पाएंगे।’’

गुजरात मामले की सुनवाई करने वाले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होते ही केंद्र सरकार करती रही है उपकृत:
वर्तमान वित् मंत्री अरुण जेटली ने फरवरी 2013 में सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद विभिन्न आयोगों में जजों की नियुक्ति पर नई बहस छेड़ दी थी। इससे पूर्व वर्ष 2010 में पायनियर अखबार में टिप्पणीकार अब्राहम थॉमस ने एक लेख लिखा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश कई अन्य न्यायाधीशों का जिक्र करते हुए कहा गया था कि जिन भी जजों ने नरेंद्र मोदी पर शिकंजा कसा, केंद्र की यूपीए सरकार ने उन्हें तुरंत पद पुरस्कार देकर सम्मानित उपकृत किया। उस लेख का शीर्षक था,‘‘इट्स ऑफिशियल: बैट मोदी गेट रिवार्ड।’’

जस्टिस आफताब आलम अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए। उन्हें सेवानिवृत्त हुए दो महीने भी नहीं हुए थे कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की केंद्र सरकार ने उन्हें टेलिकॉम डिस्प्यूट सेटलमेंट एंड एपेलेट ट्रिब्यूनल (टीडीसेट) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया वीएन खरे को कौन भूल सकता है? गुजरात दंगे की सुनवाई के दौरान मोदी सरकार के खिलाफ उन्होंने बेहद कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था कि गुजरात सरकारराजधर्मको निभाने में असफल रही थी। जस्टिस वीएन खरे के आदेश पर ही दंगों की अदालती सुनवाई की निगरानी शुरू हुई थी। बेस्ट बेकरी केस में 21 अभियुक्तों को बेगुनाह मानते हुए बरी कर दिया गया था, लेकिन जस्टिस खरे ने बेस्ट बेकरी की फाइल दोबारा से खुलवाई थी। जस्टिस खरे वर्ष 2004 में सेवानिवृत्त हुए थे और वर्ष 2006 में केंद्र सरकार ने उन्हें भारत रत्न के बाद देश के दूसरे नंबर के सर्वोच्च नागरिकता सम्मानपद्म विभूषणसे सम्मानित किया था।

इसी प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के जस्टिस अरिजीत पसायत का वह वाक्य सभी को याद है, जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी कोआधुनिक नीरोकी संज्ञा दे डाली थी। जस्टिस अरिजीत पसायत ने ही बेस्ट बेकरी केस की सुनवाई को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में चलाने का आदेश पारित किया था। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले और अपने कार्यकाल के आखिरी दिन उन्होंने दंगे में नरेंद्र मोदी उनके मंत्रीमंडल के खिलाफ एसआईटी जांच का आदेश पारित कर दिया था। चुनाव में कांग्रेस ने इसका भरपूर फायदा उठाया।

9 मई 2009 को जस्टिस अरिजीत पसायत सेवानिवृत्त हुए और दो सप्ताह के भीतर केंद्र सरकार ने उन्हें कम्पीटीशन एपिलेट ट्रिब्यूनल (कैट) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। 20 मई 2009 को उन्होंने पदभार संभाला था।कैटके बाद वर्ष 2012 में जस्टिस पसायत को यूपीए सरकार ने आॅथरिटी फॉर एडवांस रूलिंग सेंट्रल एक्साइज, कस्टम एंड सर्विस टैक्स का अध्यक्ष नियुक्त कर किया था।

कुछ इसी तरह का मसला जस्टिस तरुण चटर्जी का भी है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस तरुण चटर्जी की खंडपीठ ने ही महाराष्ट्र सरकार द्वारा भगोड़ा घोषित अपराधी सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस की जांच को सीबीआई के हवाले किया था। अपने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक दिन पहले जस्टिस तरुण चटर्जी ने सोहराबुद्दीन मामले की जांच सीबीआई को सौंपा था। सेवानिवृत्त होते ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जस्टिस तरुण चटर्जी को आसाम और अरुणाचल प्रदेश सीमा विवाद मामले में मध्यथ के रूप में नियुक्त कर उन्हें उनके पूर्व के कार्य के लिए उपकृत करने का प्रयास किया।

मशहूर वकील रामजेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट में जिरह के दौरान कहा था कि ‘‘साफ दिखता है कि जस्टिस तरुण चटर्जी ने निजी हित में पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर निर्णय लिया है। केंद्र सरकार ने सेवानिवृत्त होने के तत्काल बाद उन्हें नौकरी देकर उपकृत किया है, जो उनके निर्णय में निहित आर्थिक हित को दर्शाता है।’’

और अंत में...आखिर क्या कहा मार्केंडेय काटजू ने?


मार्केडेय काटजू ने एक अखबार से बातचीत में कहा, मद्रास हाई कोर्ट के एक जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे थे। उन्हें सीधे तौर पर तमिलनाडु में डिस्ट्रिक्ट जज के तौर पर नियुक्त कर दिया गया था।


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